यह भैंसो की सबसे प्रसिद्ध नसल है, इस नेसल का जन्म स्थान हरियाणा राज्य का रोहतक जिला है। लेकिन यह इस नेसल की भैंस अब दूसरे प्रान्तों तथा दूसरे देशों में भी पाली जाती है। मुर्राह नेसल की भैंस ज्यादातर हिसार, रोहतक और हरियाणा के जींद और पंजाब के पटियाला और नाभा जिले में पायी जाती है। इसे नेसल की भैंस को काली, खुंडी और डेली के नाम से भी जाना जाता है। इस नसल का रंग शाह काला होता है और इनके सिर, पूँछ और पैर पर सुनहरे रंग के बाल होते है। इसके सींग छोटे और खुंडे, पूंछ लंबी पैरों तक, गर्दन और सिर पतला, भारी लेवा और थन लंबे होते हैं। इनके मुड़े हुए सींग इस नेसल की भैंसो को अन्य नसलों की भैंसो से अलग बनाते हैं। मुर्रा नेसल की भैंस एक ब्यांत में 1600-1800 लीटर दूध देती है और दूध में वसा की मात्रा 7 प्रतिशत होती है।
मुर्रा नस्ल की भैंस की कीमत
मूलतः मुर्रा नस्ल की भैंस की कीमत 1 लाख रुपये से अधिक होती है. आप इस नस्ल की भैंस खरीदकर डेयरी व्यवसाय शुरू कर सकते हैं. मुर्रा नस्ल की भैंस को आजकल आप ऑनलाइन भी खरीद सकते है, जिस्से आपको इस भैंस की खरीद पर अच्छा लाभ मिल सकता है तथा इस नस्ल की भैंस की खरीद के लिये कई राज्य सरकारें आर्थिक अनुदान भी दे रही हैं. सब्सिड़ी लागू होने के बाद मुर्रा भैंस को 80,000 रुपये या इससे कम में खरीदा जा सकता है. भारत सरकार द्वारा भी राष्ट्रीय गोकुल मिशन और पशु किसान क्रेडिट कार्ड पर पशुओं की खरीद के लिये सब्सिडी दी जा रही है।
यह मुर्रा नस्ल की भैंस का चारा
मुर्रा नस्ल की भैंस को जल्दी पचने वाला चारा देना चाहिए। तथा फलीदार चारे को खिलाने से पहले उनमें तूड़ी या अन्य चारा मिला लेनी चाहिए। मुर्रा नसल की भैंसों को जरूरत के अनुसार ही खुराक देनी चाहिए ताकि उन्हें अफरा या बदहजमी की शिकायत ना हो। मुर्रा नस्ल की भैंस की खुराक का प्रबंध नीचे लिखे अनुसार देनी चाहिए।
बाइ प्रोडक्ट – गेहूं का चोकर/चावलों की पॉलिश/बिना तेल के चावलों की पॉलिश
तेल बीजों की खल – मूंगफली/तिल/सोयाबीन/अलसी/बड़ेवें/सरसों/सूरजमुखी
दाने – मक्का/गेहूं/जौं/जई/बाजरा
चारा – गेंहू या धान का भूसा, हरा चारा
आवश्यक खुराकी तत्व- उर्जा, प्रोटीन, कैलशियम, फासफोरस, विटामिन ए।
मुर्रा नस्ल की भैंस में होने वाली बीमारियां और रोकथाम
मुर्रा नस्ल की भैंस को बीमारी से बचने के लिए बहुत ध्यान रखना होता है। इस नस्ल की भैंस को होने वाली बीमारियां तथा उनके उपाय नीचे दिए गए है।
मुर्रा नस्ल की भैंस का गलाघोंटू रोग और इसका इलाज
गलाघोंटू (Hemorrhagic Septicemia) रोग मुख्य रूप से भैंस को होता है और यह बहुत खतरनाक रोग भी है। गलाघोंटू रोग ज्यादातर 6 महीने से लेकर 2 साल तक की भैंसो को ज्यादा होता है। गलाघोंटू रोग को साधारण भाषा में ‘घूरखा’, ‘घोंटुआ’, ‘अषढ़िया’, ‘डकहा’ आदि नामों से भी जाना जाता है। गलाघोंटू रोग से भैंस अकाल मृत्यु का शिकार हो जाती है। यह रोग मानसून के समय व्यापक रूप से फैलता है। अति तीव्र गति से फैलने वाला यह जीवाणु जनित रोग, छूत वाला भी है। यह Pasteurella multocida नामक जीवाणु (बैक्टीरिया) के कारण होता है।
गलाघोंटू रोग के कारण
- गलाघोंटू रोग पासचुरेला मलटूसिडा नामक जीवाणु से होता है, जो भैंस के नासिका ग्रंथी या टांसिल में पाया जाता है।
- इस बीमारी के जीवाणू एक बीमार भैंस से स्वस्थ भैंस में जूठा पानी या चारा खाने से या मुंह या नाक के द्वारा भी हो सकता हैं।
- गलाघोंटू रोग ज्यादातर बरसात के मौसम और जब गर्मी ज्यादा होती है, तब इसकी संभावना अधिक हो जाती है। इसके साथ ही यह रोग साल में कभी भी हो सकता है
- भैंस में पोषण की कमी, काम का ज्यादा बोझ, अधिक गर्मी और अन्य बीमारियां जैसे कि खुरपका-मुंहपका रोग, खून में परजीवी होना आदि इस बीमारी को बढ़ावा देते हैं।
गलाघोंटू रोग के लक्षण
- गलाघोंटू रोग में भैंस को अचानक तेज बुखार हो जाता है एवं पशु कांपने लगता है।
- भूख कम लगना या न लगना
- नाक और आंख में से पानी का बहना
- बहुत ज्यादा लार बहना
- साँस लेने में तकलीफ होना
- दस्त होना और पेट दर्द होना
- छाती, गले एवं गर्दन पर दर्द के साथ सूजन आना आदि
बहुत बार देखा गया गलाघोंटू बीमारी के तेजी से बढ़ने के कारण कुछ लक्षणों का पता नहीं लगता है और कुछ समय बाद उसकी मौत हो जाती है।
गलाघोंटू रोग की रोकथाम
- यदि पशु चिकित्सक के द्वारा समय पर इलाज शुरू किया जाता है तब भी इस जानलेवा रोग की बचाव दर बहुत कम है I
- सल्फाडीमीडीन, ओक्सीटेट्रासाईक्लीन एवं क्लोरम फेनीकोल जैसे एंटी बायोटिक इस रोग के खिलाफ कारगर हैं I इनके साथ अन्य जीवन रक्षक दवा इयाँ भी पशु को ठीक करने में मददगार हो सकती हैंI इसलिए बचाव सर्वोतम कदम है I
- बीमार भैंस को बाकी सवस्थ भैंस से अलग रखना चाहिए
- भैंस को पहला टीका 6 महीने की उम्र में और फिर हर वर्ष लगवाना चाहिए।
- मॉनसून आने से पहले ही टीकाकरण करवा लेना चाहिए।
- गर्मियों के मौसम में भैंसो को अलग अलग और खुली जगह पर बांधना चाहिए।
पाचन प्रणाली सम्बंदित बीमारियां:
भैंस में अफरा की समस्या का इलाज
- यदि किसी भैंस को बार-बार अफरा की शिकायत हो तो एक्टीवेटड चारकोल, 40 प्रतिशत फार्मलीन 15-30 मि.ली. और डेटोल का पानी भी दिया जा सकता है।
- अगर आपकी भैंस को अफरे की समस्या हो जाये तो आप उसे तारपीन का तेल 30-60 मि.ली., हींग का अर्क 60 मि.ली. या सरसों अलसी का 500 मि.ली. तेल भैंस को दें। तारपीन का तेल ज्यादा मात्रा में नहीं देना चाहिए, इससे पेट खराब हो सकता है।
- बीमारी की किस्म और पशु की हालत देखते हुए डॉक्टर की सहायता लें
कब्ज की समस्या का इलाज
- कब्ज होने पर भैंस को अलसी का तेल 500 मि.ली. दें।
- कब्ज होने पर भैंस की चारे में सूखे मठ्ठे ना डालें और ज्यादा पानी पीने के लिए दें।
- बड़ी भैंस को कब्ज होने पर 800 ग्राम मैगनीशियम सल्फेट पानी में घोलकर और 30 ग्राम अदरक का चूरा मुंह द्वारा दें।
सादी बदहजमी का इलाज
- जल्दी पचने वाली खुराक दें।
- भूख बढ़ाने वाले मसाले दें।
मुर्रा भैंस की देख रेख: मुर्रा भैंस की देखभाल की लिए कुछ अहम् बातो का ध्यान में रखना जरुरी है। कृपया नीचे दी हुई बातो को ध्यान से पढ़े:
- अच्छे शैड या अच्छे बाड़े की आवश्यकता: मुर्रा भैंस की अच्छे प्रदर्शन या ज्यादा दूध के लिए, इस नस्ल की भैंस को अनुकूल पर्यावरणीय परिस्थितियों की आवश्यकता होती है। इस नस्ल की भैंस को भारी बारिश, तेज धूप, बर्फबारी, ठंड और परजीवी से बचाने के लिए शैड की आवश्यकता होती है।
- गाभिन भैंस की देखभाल: गाभिन भैंस की देखभाल अच्छे से करने से दूध की मात्रा अधिक मिलती है और कटड़ा/कटिया भी तंदुरुस्त होती है। गाभिन भैंस को 1 किलो अधिक फीड दें, क्योंकि वे शारीरिक रूप से भी बढ़ती है।
- कटड़ा/कटिया की देखभाल और प्रबंधन: कटड़ा/कटिया के जन्म के तुरंत बाद नाक या मुंह के आस पास चिपचिपे पदार्थ को साफ करना चाहिए। यदि कटड़ा/कटिया सांस नहीं ले रहा है तो उसे दबाव द्वारा बनावटी सांस दें और हाथों से उसकी छाती को दबाकर आराम दें। शरीर से 2-5 सैं.मी. की दूरी पर से नाभि को बांधकर नाडू को काट दें। 1-2 प्रतिशत आयोडीन की मदद से नाभि के आस पास से साफ करना चाहिए।